मुकेश बालयोगी
झारखंड के मुख्यमंत्री का ताज लगातार दूसरी बार और कुल मिलाकर तीसरी बार पहनने के बाद हेमंत सोरेन ऊंची उड़ान भरने की तैयारी में हैं। 23 नवंबर को मतगणना में तस्वीर साफ होते ही उन्होंने पत्रकारों से बात करते हुए अपनी बढ़ी हुई महत्वाकांक्षा के इरादे जता दिए थे। हेमंत सोरेन ने कहा था कि देश में जहां कहीं भी आदिवासियों पर संकट आएगा या आदिवासी अस्मिता के साथ खिलवाड़ होगा, वे वहां भाई बनकर चट्टान की तरह खड़े रहेंगे।
देश में 10 फीसदी आबादी वाले आदिवासी समुदाय के लिए हेमंत सोरेन का यह दूरगामी संदेश है। राजग और इंडिया गठबंधन दोनों को भी हेमंत सोरेन ने अपने अगले सियासी पासे की आहट दे दी है। इससे साफ है कि हेमंत राष्ट्रीय स्तर पर सियासत और सत्ता में आदिवासियों की भागीदारी को लेकर दूर की कौड़ी खेलने वाले हैं। पूर्वोत्तर भारत के बाहर यह पहला मौका है जब किसी आदिवासी नेता के लगातार 10 साल तक मुख्यमंत्री बने रहने की संभावना में कोई शक-सुबहा नहीं है। इस मौके का लाभ उठाकर हेमंत सोरेन आदिवासी नेतृत्व में उस स्तर पर पहुंचने की तैयारी में हैं, जहां उनके करिश्माई पिता शिबू सोरेन भी नहीं पहुंच सके। हेमंत सोरेन को आदिवासी राजनीति में राष्ट्रीय स्तर पर रिक्तता का अहसास है।
इस रिक्तता को भरने के लिए हेमंत सोरेन के पास प्लानिंग भी हैै। इस क्रम में वे इंडिया गठबंधन के अपने साझीदारों के साथ दूसरे राज्यों के विधानसभा चुनाव में भी मोलभाव या दो-दो हाथ करने से नहीं चूकेंगे। आदिवासियों के राष्ट्रीय नेता या यों कहें कि राष्ट्रीय आदिवासी सरदार का ओहदा पाने के लिए यह लाजमी भी होगा। हेमंत सोरेन के लिए यह ओहदा पाना इसलिए भी अधिक चुनौतीपूर्ण है कि ओबीसी या दलितों की तरह राष्ट्रीय राजनीति में कभी भी ट्राइबल एजेंडा नहीं रहा। ज्यादातर आदिवासी नेता अपने प्रदेशों की राजनीति ही करते रहे हैं। संसद में भी आदिवासी नेताओं की ओर से उठाए जाने वाले सवाल बड़े संदर्भ की जगह किसी खास इलाके की आदिवासी समस्याओं पर ही केंद्रित रहते हैं। हेमंत सोरेन को इसका अहसास है। इसलिए वे मुख्यमंत्री रहते राष्ट्रीय आदिवासी नेतृत्व में अपनी बड़ी भूमिका तलाशने से नहीं चूकेंगे।
2026 के आसाम विधानसभा चुनाव से कर सकते हैं आगाज
आदिवासियों के राष्ट्रीय सरदार बनने को आतुर हेमंत सोरेन के लिए 2026 में होने वाला असम विधानसभा चुनाव बड़ा अवसर है। उनकी नजर अभी से वहां टिक गई है। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि असम में लगभग एक करोड़ टी ट्राइब्स हैं। टी ट्राइब्स उन्हें कहा जाता है, जिन्हें चाय बागानों में काम करने के लिए झारखंड, बिहार, ओड़िशा और पश्चिम बंगाल से ले जाया गया था। इनके वोटों को लुभाने के लिए भाजपा और कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टियां झारखंड के आदिवासी नेताओं का ही इस्तेमाल करती रही हैं। 126 सदस्यों वाली असम विधानसभा में लगभग 40 विधानसभा सीटों पर इन टी ट्राइब्स का प्रभाव है। इनमें भी सबसे अधिक झारखंड से गई संताल जनजाति के लोग हैं। इसके अलावा झारखंडी मूल के उरांव, मुंडा, हो, खड़िया आदि भी काफी संख्या में हैं। ये झारखंड के अपने मूल समुदाय की बोली ही बोलते हैं। इनकी सभाओं को संबोधित करने वाले झारखंड के नेता झारखंड की स्थानीय भाषाओं में ही भाषण देते हैं।
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हेमंत सोरेन के पिता शिबू सोरेन भी यदा-कदा आसाम विधानसभा चुनाव में किसी न किसी पार्टी के लिए प्रचार करने जाते रहे हैं। परंतु कभी भी वहां से उम्मीदवार नहीं खड़ा किया। इस बार झारखंड विधानसभा चुनाव में हेमंत सोरेन की आसाम के मुख्यमंत्री हिमंता विश्वशर्मा के साथ सीधी अदावत हुई। वाक् युद्ध से लेकर रणनीति के स्तर तक पर साफ झलक रहा था कि सीधी चुनावी भिड़ंत हेमंत सोरेन और हिमंता विश्वशर्मा के बीच है। वैसे तो हिमंता को हेमंत शिकस्त दे चुके हैं परंतु आसाम में उनकी पिच पर जाकर हराने के बाद कद काफी बड़ा हो जाने का लोभ नहीं छोड़ पा रहे हैं। हेमंत के रणनीतिकारों ने अभी से इस पर अमल करना शुरू कर दिया है। जल्दी ही झामुमो समर्थक आदिवासी बुद्धिजीवियों का एक प्रतिनिधिमंडल आसाम का दौरा कर सकता है।
वृहत्तर झारखंड की मांग को मिल सकती है नई धार
झारखंड के सीमावर्ती राज्यों में भी हेमंत सोरेन के लिए बड़ा मौका है। बिहार, ओड़िशा, पश्चिम बंगाल और छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाकों में झामुमो की सक्रियता रही है, परंतु अभी वहां झामुमो संगठन लगभग मृतप्राय है। इन इलाकों में झामुमो के उम्मीदवार चुनाव भी लड़ते रहे हैं। कभी-कभी सफलता भी मिलती रही है। परंतु अलग झारखंड राज्य बनने के बाद झामुमो नेतृत्व ने इन इलाकों में पार्टी संगठन की मजबूती पर ध्यान देना बंद कर दिया। हालांकि झामुमो ने अलग राज्य का जो आंदोलन शुरू किया था, उसके तहत मांग बिहार, ओड़िशा, पश्चिम बंगाल और छत्तीसगढ़ यानी चार राज्यों के आदिवासी अंचलों को काटकर अलग राज्य बनाने की थी।
शिबू सोरेन उसे वृहत्तर झारखंड कहते थे। परंतु, केवल बिहार से काटकर ही झारखंड राज्य का निर्माण किया गया। आदिवासियों के बुद्धिजीवी संगठनों और केंद्रीय गृह मंत्रालय के बीच वृहत्तर झारखंड के निर्माण का कागजी घोड़ा अभी भी दौड़ता रहता है। अपने बढ़े रसूख का फायदा उठाकर हेमंत सोरेन वृहत्तर झारखंड का मुद्दा फिर से उछाल सकते हैं या फिर उन इलाकों में पार्टी संगठन की मजबूती को नई राजनीतिक धार देकर सार्थक राजनीतिक हस्तक्षेप कर सकते हैं। 2025 में होने जा रहे बिहार विधानसभा चुनाव से इसकी शुरूआत हो सकती है।
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बिहार में बांका सीट से झामुमो के सांसद भी रहे हैं। भागलपुर, बांका, जमुई और कटिहार जिले की कुछ आदिवासी बहुल विधानसभा सीटों पर झामुमो अपना उम्मीदवार उतारती भी रही है। बिहार के आदिवासी मतदाताओं को हेमंत सोरेन अपने साथ फिर से गोलबंद करने की कोशिश कर सकते हैं। ऐसे में राजद और कांग्रेस के साथ भी झामुमो के दोस्ताना संघर्ष की नौबत आ सकती है।
ममता की जगह हेमंत हो सकते हैं विपक्ष का चेहरा
2019 के लोकसभा चुनाव से पहले पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की काट के लिए विपक्ष का चेहरा के तौर पर स्थापित करने की कोशिश की जा रही थी। क्योंकि गैर राजग क्षेत्रीय दल कांग्रेस की जगह क्षेत्रीय दलों के किसी नेता को प्रधानमंत्री के चेहरे के तौर पर स्थापित करने को ज्यादा उचित मानते हैं। हेमंत सोरेन के नए उभार के बाद यह कोशिश फिर से जोर पकड़ सकती है। इस बार ममता की जगह हेमंत को अगर आजमाया जाय तो ज्यादा आश्चर्य नहीं होगा। क्योंकि ममता बनर्जी का राजनीतिक प्रभाव जहां केवल पश्चिम बंगाल, आसाम और त्रिपुरा राज्यों में ही है।
वहीं राष्ट्रीय आदिवासी सरदार बनने की कोशिश में लगे हेमंत सोरेन देश के अधिकतर राज्यों में अपना प्रभाव छोड़ सकते हैं। देश की आबादी के 10 प्रतिशत आदिवासियों के वोट बैंक को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए इंडिया गठबंधन भी इस दिशा में मजबूर हो सकता है। परंतु, इससे पहले झारखंड में अपनी मजबूती साबित कर चुके हेमंत सोरेन को देश के कम से कम चार-पांच राज्यों में अपनी सार्थक उपस्थिति साबित करनी होगी। वहीं इंडिया गठबंधन के नेताओं के सामने ओबीसी एजेंडे की ही तरह आदिवासी एजेंडे को भी व्यापक बहस बनाने की चुनौती स्वीकार करनी होगी।
आदिवासियों के राष्ट्रीय नेता क्यों बन सकते हैं हेमंत सोरेन
हेमंत सोरेन के आदिवासियों के राष्ट्रीय नेता बन सकने की संभावना का सबसे बड़ा आधार यह है कि वे संताल जनजाति से आते हैं। जो देश में भील और गोंड के बाद तीसरा सबसे बड़ा आदिवासी समुदाय है। अकेले झारखंड के 82 लाख आदिवासियों में 45-50 लाख संताल हैं। आसाम में भी 20 लाख से अधिक संताल हैं। देश के छह राज्यों में केवल संताल जनजाति की आबादी एक करोड़ के आस-पास है। यह समुदाय झारखंड की 25-30 विधानसभा सीटों पर असर डालता है। आसाम में भी 10 विधानसभा सीटों पर संताल निर्णायक फैक्टर हैं। ओड़िशा और पश्चिम बंगाल में भी पांच-सात विधानसभा सीटें ऐसी हैं।
संताल समुदाय की भाषा संताली को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किया जा चुका है। संताली साहित्य का स्तर भी तुलनात्मक रूप से बाकी आदिवासी भाषाओं से काफी ऊंचा है। इस कारण संताल समुदाय के बुद्धिजीवियों की विश्वदृष्टि का भी अच्छा विकास हुआ है। एक दर्जन से अधिक संताली साहित्यकारों को साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। आसाम में संताल समुदाय से मंत्री, विधानसभा अध्यक्ष और केंद्रीय मंत्री हो चुके हैं। इस कारण बाकी आदिवासी समुदाय को संतालों का बौद्धिक नेतृत्व स्वीकार करने में कोई कठिनाई नहीं है। इसी तरह एक बड़े आदिवासी राज्य के संताल मुख्यमंत्री का सियासी नेतृत्व स्वीकार करने में वृहत्तर आदिवासी समुदाय को कोई परेशानी नहीं होगी।
दूसरी ओर, भाजपा अपना सबसे बड़ा वैचारिक विरोधी मार्क्स, मदरसा और मिशनरी को मानती है। मार्क्स, मदरसा और मिशनरी का वह समीकरण हमेशा झामुमो, शिबू सोरेन और हेमंत सोरेन के साथ रहा है। शिबू सोरेन के तो द शिबू सोरेन बनने के पीछे ही मार्क्सवादियों की रणनीति रही है। उनका वैचारिक प्रशिक्षण भी मार्क्सवादी रहा है। काम के शुरूआती तौर-तरीके भी क्रांतिकारी कम्युनिस्टों या यो कहें कि नक्सलवादियों की तरह थे। सियासत की सीढ़ियां भी उन्होंने एके राय जैसे वामपंथी विचारक के मार्गदर्शन में चढ़ी। बाद में लाल झंडे को छोड़कर हरा परचम थामा। वह भी उदारवादी मार्क्सवाद यानी समाजवाद ही है।
इसके बावजूद वामपंथियों की सहानुभूति हमेशा झामुमो और शिबू सोरेन के साथ रही। मिशनरियों यानी ईसाई संगठनों का वैचारिक समर्थन पहले और अभी भी झामुमो के साथ है। इसलिए राष्ट्रीय स्तर पर उभऱते आदिवासी नेता की मजबूती के लिए ईसाई इंंटेलेक्चुअल इको सिस्टम अपनी पूरी ताकत लगा देगा। अब बात मदरसा यानी इस्लाम की, जय भीम-जय मीम का नारा चल ही रहा है। यानी दलित-मुस्लिन सियासी गठजोड़ के समीकरण पर फोकस है। परंतु, दलित समुदाय आदिवासियों की तुलना में काफी अधिक जागरूक है। दलित नेतृत्व इस्लामिक थिंक टैंक की कठपुतली बनना कभी स्वीकार नहीं करेगा।
ऐसे में मुसलमानों के सियासी रणनीतिकार भाजपा और मोदी की काट में अपनी ताकत में इजाफे के लिए उभऱते आदिवासी नेतृत्व को राष्ट्रीय स्तर पर साथ देकर सियासी सफलता के लिए नया एक्सपेरिमेंट कर सकते हैं। देश में आदिवासियों की 10 फीसदी आबादी 14 फीसदी मुस्लिम आबादी के साथ मिलकर सियासत के नए समीकरण रच सकती है। झारखंड में तो झामुमो का समीकरण ही मुस्लिम, माझी और महतो का है। मुसलमानों और आदिवासियों की नई राजनीतिक जुगलबंदी के परिवर्तनकामी होने के भी कयास लगाए जा सकते हैं। कुल मिलाकर हेमंत सोरेन के सपनों के आकाश में उम्मीदों के घने बादल छाये हुए हैं, अब देखना यह है कि ये बादल बरसते हैं या बिजलियां गिराते हैं।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. ये लेखक के निजी विचार हैं.